Symblolism प्रतीकात्मकता
सारी दुनियाँ को उंगलियों पर नचा रहे हैं हम सब प्रतीकों में सिमटते जा रहे हैं।
जितने भी जीवन में प्रश्न हैं व्यवधान हैं
हर एक समस्या का चिन्ह ही समाधान है।
आना है जाना है खाना है या पाना है
निशान ही आदान निशान ही प्रदान है
प्रतीकों ने हमें जकड़ लिया है
या हमने ही उन्हें पकड़ लिया है।
व्यक्ति की पहचान चिन्ह में बदलती जा रही
प्रतीकात्मकता ही जीवन दर्शन बनती जा रही।
विरोध हो तो काली दिखा दी
उग्र ह़ो गये तो कुछ बसें जला दी
महिला उत्पीड़न है तो मोमबत्तियां जला दो
भ्रष्ट आचरण है तो सी.बी.आई करा लो
कोई जश्न है तो कुछ मीठा हो जाए
जश्न मिलकर मनां ले बस दो घूंट मिल जाए।
आराम का मामला है एक अदद बाला चाहिए
अभिनेता के दाँत नहीं साथ मधुबाला चाहिए
प्रश्नवाचक राजनीति का विषय हो गया
विस्मयादिबोधक अप्रसांगिक हो गया।
अब जीवन सीधा सादा हो गया
हां ही प्रश्न ना ही उत्तर हो गया।
अगोचर व्यवस्था विकल्प देती जाती है
स्वयं ही उत्तर स्वयं ही प्रश्न करती जाती है
भाव मन के बाजार के समान हो गये
हम ही बाजार हम ही सामान हो गये।
शून्य से नौ तक सिमट गया इंसान
अंकों में ढूंढ रहा हर व्यक्ति अपनी पहचान।
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