शुक्र ऐ खुदा तेरा फटे हाल हूं,
आसां है सफ़र में बिन सामान हूं।
ये ट्रेन भी कैसी चलती हैं,कितने ही फलसफे बुनती हैं।
ट्रेन से ट्रेन का बराबर का फासला है, इस दूरी पर ही जिंदगी का सफ़र काटना है।
कभी मिल नहीें पाती, कुछ कह नही पाती। एक पहुँचा रही है, कोई वापस ला रही है।
कोई सुपरफास्ट है, सबसे तेज है, कुछ मेल हैं, कभी इंजन कभी ब्रेक फेल है।
फिर भी ट्रेन ट्रेन हैं, दौड़ते रहना ही जीवन का खेल है।
- चलिये किसी सफर पे चलते हैं। कुछ देख के सोचते, कुछ सोच के देखते हैं। अब ट्रेन पर चढ़ जाइए, खिड़की वाली सीट पर बैठ जाइए। बगल वाली पटरी पे जो खड़ी है, अपनी ही जिद पर अड़ी है। आगे कुछ दिखाई नही देता, क्या करूँ कुछ सुझाई नही देता। कुुछ पल में वो चल जाती है, विपरीत दिशा बढ़ जाती है। ये क्या! मेरी बढ़ती लगती है। वो वहीं ठहरी दिखती है।
ऐसा ही होता है संसार में, इस जीवन में व्यवहार में। वो गिर रहा है, पिछड़ रहा है। लगता है हम बढ़ रहे हैं, आगे निकल रहे हैं। दो ट्रेन एक गति से एक मंजिल को बढ़ती हैं, इक-दूजे की दृश्टि
में दोनो स्थिर सी लगती हैं। अपनी रुकी हो दूसरी आगे बढ़ती है, अपनी पिछड़ती सी लगती है।
कोई किसी दूर की पटरी पर चल रही है, आगे बढ़ रही या पिछड़ रही हो।
कोई फर्क नही पड़ता, अंतर नहीं दिखता।
एक गति से बढ़ती-घटती ट्रेन में कुछ सुझाई नहीं देता,अपने में हों मगन तो कुछ दिखाई नहीं देता।
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