बैठने से बड़ी कोई कला नही,
बैठाने से बड़ी कोई सजा नहीं।
बैठकर भी सबकुछ पाया जा सकता है,
बैठाकर किसी को भी रुलाया जा सकता है।
कैसे-कैसे मनीषी,दानिश एक बार बैठ गये,
कितने जमाने बस यूं ही बीत गये।
बैठने के भी अपने तरीके-कायदे हैं,
सही समय सही जगह बैठने के अपने फायदे हैं।
जिसके पास बैठोअपने ढंग बिठाता है,
बिठा सोफे पे अपनी हैसियत दिखाता है।
सोफे भी इतने ऊंचे और बडे़ हो जाते हैं,
हम जैसों के पांव अधर में लटक जाते हैं।
समझ नहीं आता बैठाया गया है या लटकाया,
हंसाया गया है या रुलाया।
सोफे समझ ही नहीं आता बड़े क्यों इतने हैं,
बैठने को बनाये गये या लेटने को बिछे हैं।
कुछ ऐसे भी जो बिन बुलाये ही बैठ जाते हैं।
चाय तो पीते ही हैं भेजा भी खा जाते हैं।
ऐसे भी हैं जो हर जगह नहीं बैठते हैं,
पहले स्टेटस, और सूरत देखते हैं।
रुतबे की गद्दी पर जो कोई बैठ जाता है,
छोड़ इंसानियत वो लकडी़ का बन जाता है।
जहाँ जाता है कुर्सी साथ चलती है,
कुर्सी पीछे चापलूसों की बारात चलती है।
कोई उठा रहा, कोई लगा रहा,
एक पोछ रहा दूजा सजा रहा।
कुछ लोग ठीक बैठ नहीं पाते हैं,
बैठे-बैठे ही लेट जाते हैं।
कुछ एकदम सीधे बैठते हैं,
सबको अपने से तौलते हैं।
ऐसे भी हैं खुद न बैठ दूसरों को बिठाते हैं,
और करें काम खुद आराम फरमाते हैं।
कुछ एक कयी जगह बैठ जाते हैं,
बेच देते हैं मठ्ठा मख्खन खा जाते हैं।
कोई अदा से बैठता है,
कोई सजा में बैठता है।
इक अर्श पे बैठा है,
वो फर्श पे बैठा है।
ऊंट किस करवट बैठ जाय,
मुरगी किस अंडे को से आय।
जाने कौन मदारी प्रधान बन जाए,
कौन सा मर जाय, किसमें प्राण आए।
सब बैठने पर निर्भर करता है।
सलीका बैठने का ही जानवर इंसान में अंतर करता है।
इसलिए जिंदगी में कुछ पाना है,
हंसना या किसी को रुलाना है।
बैठाने से बड़ी कोई सजा नहीं।
बैठकर भी सबकुछ पाया जा सकता है,
बैठाकर किसी को भी रुलाया जा सकता है।
कैसे-कैसे मनीषी,दानिश एक बार बैठ गये,
कितने जमाने बस यूं ही बीत गये।
बैठने के भी अपने तरीके-कायदे हैं,
सही समय सही जगह बैठने के अपने फायदे हैं।
जिसके पास बैठोअपने ढंग बिठाता है,
बिठा सोफे पे अपनी हैसियत दिखाता है।
सोफे भी इतने ऊंचे और बडे़ हो जाते हैं,
हम जैसों के पांव अधर में लटक जाते हैं।
समझ नहीं आता बैठाया गया है या लटकाया,
हंसाया गया है या रुलाया।
सोफे समझ ही नहीं आता बड़े क्यों इतने हैं,
बैठने को बनाये गये या लेटने को बिछे हैं।
कुछ ऐसे भी जो बिन बुलाये ही बैठ जाते हैं।
चाय तो पीते ही हैं भेजा भी खा जाते हैं।
ऐसे भी हैं जो हर जगह नहीं बैठते हैं,
पहले स्टेटस, और सूरत देखते हैं।
रुतबे की गद्दी पर जो कोई बैठ जाता है,
छोड़ इंसानियत वो लकडी़ का बन जाता है।
जहाँ जाता है कुर्सी साथ चलती है,
कुर्सी पीछे चापलूसों की बारात चलती है।
कोई उठा रहा, कोई लगा रहा,
एक पोछ रहा दूजा सजा रहा।
कुछ लोग ठीक बैठ नहीं पाते हैं,
बैठे-बैठे ही लेट जाते हैं।
कुछ एकदम सीधे बैठते हैं,
सबको अपने से तौलते हैं।
ऐसे भी हैं खुद न बैठ दूसरों को बिठाते हैं,
और करें काम खुद आराम फरमाते हैं।
कुछ एक कयी जगह बैठ जाते हैं,
बेच देते हैं मठ्ठा मख्खन खा जाते हैं।
कोई अदा से बैठता है,
कोई सजा में बैठता है।
इक अर्श पे बैठा है,
वो फर्श पे बैठा है।
ऊंट किस करवट बैठ जाय,
मुरगी किस अंडे को से आय।
जाने कौन मदारी प्रधान बन जाए,
कौन सा मर जाय, किसमें प्राण आए।
सब बैठने पर निर्भर करता है।
सलीका बैठने का ही जानवर इंसान में अंतर करता है।
इसलिए जिंदगी में कुछ पाना है,
हंसना या किसी को रुलाना है।
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